Thursday, November 3, 2011

फ्री प्रेस की फ्रीडम!


हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।

इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।

Monday, October 24, 2011

कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?


प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण  गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीवी चैनल पर एक नया कार्यक्रम दिखाई पड़ा ‘सच का सामना।‘ किसी विदेशी कार्यक्रम की नकल पर बने कार्यक्रम का ध्यान देने वाला पहलू था तो उसकी टाइमिंग। कठोर सच सामने आ रहे हैं। उन्हें सुनने, विचार करने और अपने को सुधारने के बाद ही कोई समाज या संस्था आगे बढ़ सकती है। ऐसा पहली बार हुआ जब बड़े लोग जेल जाने लगे और घोटालों की झड़ी लग गई। और इन मामलों की चर्चा से समूचा मीडिया रंग गया। प्रौढ़ होते समाज के बदलाव का रास्ता विचार-विमर्श और सूचना माध्यमों से होकर गुजरता है। पिछले एक दशक में पत्रकारिता शब्द पर मीडिया शब्द हावी हो गया। दोनों शब्दों में कोई टकराव नहीं, पर मीडिया शब्द व्यापक है। सूचना-संचार कर्म के पत्रकारीय, व्यावसायिक और तकनीकी पक्ष को एक साथ रख दें तो वह मीडिया बन जाता है। इसी कर्म के सूचना-विचार पहलुओं की सार्वजनिक हितकारी और जनोन्मुख अवधारणा है पत्रकारिता। वह अपने साथ कुछ नैतिक दायित्व लेकर चलती है। पर मीडिया कारोबार भी है। वह पहले भी कारोबार था, पर हाल के वर्षों में वह यह साबित करने पर उतारू है कि वह कारोबार ही है। कारोबार के भी अपने मूल्य होते हैं। इस कारोबार के भी थे। वे भी क्रमशः कमज़ोर होते जा रहे हैं।

मीडिया हार्डवेयर है, पत्रकारिता उसका सॉफ्टवेयर है। पर सॉफ्टवेयर बनाने वाले वायरस भी बनाते हैं। यह बात वैश्विक पत्रकारिता के 400 साल के इतिहास में कई बार साबित हुई है। सार्वजनिक-हितैषी होना इसे ऊँचे धरातल पर रखता है। इसका कारोबारी मॉडल अंतर्विरोध पैदा करता है। इसी वजह से 400 वर्षों में इस काम से जुड़ी संस्थाओं ने अपने भीतर एक दीवार खड़ी की। यह दीवार चीन की ग्रेट वॉल जैसी नज़र आने वाली नहीं है या थी, पर वह थी। पिछले एक-डेढ़ दशक में यह दीवार कब गिर गई, किसी ने ध्यान नहीं दिया। जब पिछले साल टूजी के साथ नीरा राडिया के टेपों का मामला उठा तब कुछ टेप मीडिया-हाउसों तक पहुँचे। मुख्यधारा के लगभग समूचे मीडिया ने इन खबरों को न छापा, प्रसारित किया और न कोई टिप्पणी की। और जैसा कि होता है दो पत्रिकाओं ने इन्हें प्रकाशित किया और बाकी काम इंटरनेट ने कर दिया। इसके बाद भी यह विषय मुख्यधारा के मीडिया में हौले से उठकर बगैर चर्चा के खत्म हो गया।

पिछले हफ्ते चुनाव आयोग ने पेड न्यूज़ को लेकर उत्तर प्रदेश की एक विधायक की सदस्यता खत्म की तो यह खबर कुछ अखबारों में ही छप पाई। उसपर विश्लेषण छापने की कोशिश भी नहीं की। सारी दुनिया पर टिप्पणी करने वाले मीडिया के पास अपने मामलों पर विचार करने का वक्त क्यों नहीं है? अखबारों के सम्पादकीय और ‘आत्म-प्रशंसा परक विज्ञापन’ देखें तो लगता है कि मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत एक जन-पक्षधर व्यवस्था काम कर रही है। व्यावहारिक सच कुछ फर्क है। पेड न्यूज़ फैसले के अलावा हाल में भारतीय प्रेस परिषद ने मुख्य सतर्कता आयुक्त के निर्देश पर अपनी वह रपट वैबसाइट पर डाल दी, जिसका संशोधित रूप ही पहले जारी किया गया था। समझदार पत्रकारिता का तकाज़ा है कि वह इस कर्म के सामने खड़े सवालों पर विचार-विमर्श करे।

प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने हाल में मीडियाकर्मियों के साथ बातचीत में संकेत किया कि मीडिया की गैर-ज़िम्मेदाराना प्रवृत्तियों को लेकर कड़े कदम उठाने पर भी विचार होना चाहिए। एक चर्चा यह भी है कि लोकपाल कानून के दायरे में मीडिया-सम्बद्ध मसलों को शामिल करना चाहिए या नहीं। ए राजा से लेकर कर्नल गद्दाफी तक पर पन्ने रंगने वाले अखबारों के सम्पादकीय पेजों पर यह चर्चा भी शामिल होनी चाहिए। जस्टिस काटजू ने मीडिया के कुछ मुख्य दोषों को गिनाया। उनमें से एक है कि मीडिया तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है। दूसरा है कि वह उन मसलों को बड़ा बना देता है जो मसले नहीं है और जो मसले हैं उन्हें भूल जाता है। मसलन किसी अभिनेत्री के गर्भवती होने को वह बड़ी खबर मानता है और आत्महत्या करने वाले किसानों की खबर एकाध बार छाप कर इतिश्री कर लेता है। उन्होंने उदाहरण दिया कि लैक्मे फैशन शो के लिए 512 पत्रकारों ने एक्रिडिटेशन कराया। इससे मीडिया की दिलचस्पी का पता लगता है। मीडिया ब्रैंडिंग करता है। सारे मुसलमानों को आतंकवादी जैसा बनाकर पेश करने में मीडिया का हाथ है।

ऐसा नहीं कि मीडिया के लोग इन बातों को नहीं समझते। ये सामान्य दोष हैं, जिनसे प्रायः सभी मीडियाकर्मी परिचित हैं। पर इन बातों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या पत्रकार दोषी हैं? या वह पाठक या दर्शक जो मनोरंजन की चाशनी में डूबे रहना चाहता है? या मीडिया हाउसों के मार्केटिंग विभाग, जिनके दिमाग पर एक कृत्रिम करोबार की कल्पना है, जो दुनिया में कहीं नहीं है? कम से कम पश्चिमी समाज में नहीं है, जिसकी नकल वे करते हैं। या वे विज्ञापनदाता जो ऐसे उत्पादों को लोकप्रिय बनाना चाहते हैं, जिनकी हमारे समाज को ज़रूरत नहीं थी? हाल में हिन्दी अखबारों में जबरन अंग्रेजी शब्द घुसेड़ने की कोशिश के पीछे मेरी जानकारी में सिर्फ कुछ विज्ञापनदाताओं का हाथ है। वे अधकचरी संस्कृति से लैस लोगों की पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं। इस पीढ़ी को वे अपने परिधान, कॉज़्मेटिक्स, मोबाइल फोन, गैजेट्स वगैरह बेचना चाहते हैं। उस भाषा की माँग हिन्दी पाठकों ने की होगी, इसका मुझे यकीन नहीं है।

सम्पादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड इस बात के पक्ष में नहीं है कि जल्दबाज़ी में मीडिया पर बंदिशों का शिकंजा कस दिया जाए। मीडिया के नकारात्मक पहलुओं के साथ सकारात्मक पहलुओं की कमी नहीं है। मीडिया को स्वतंत्र, निर्भीक, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। पर यह कौन देखेगा कि मीडिया के भीतर इन मूल्यों की रक्षा करने को उत्सुक शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ कौन सी हैं? उन्हें कौन प्रणवायु दे रहा है और कौन उनके प्राण ले रहा है? भारतीय संवैधानिक और न्याय-व्यवस्था को ध्यान से पढ़ें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जनता का अधिकार है। पर वह जब प्रेस की स्वतंत्रता बनता है तो जनता की नहीं मीडिया के मालिक की स्वतंत्रता होता है। सिद्धांततः यही सही है। अखबार निकालने वाले को स्वतंत्र होना चाहिए। पर व्यावहारिक रूप से उसके जनोन्मुखी होने में यही पेच है। अखबार कारोबार है। उसे पूँजी चाहिए। पर क्या पूँजी की साख से दुश्मनी है? उसका पाठक चाहे तो दो रोज़ में कहानी बदल सकती है। वह क्यों नहीं चाहता? इस पर विचार करना चाहिए।

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

Wednesday, October 19, 2011

एक अखबार जो साखदार है और आर्थिक रूप से सबल भी


19 अक्टूबर के हिन्दू में वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह का पत्र छपा है, जो मैने नीचे उद्धृत किया है। खुशवंत सिंह ने अखबार की तारीफ की है और उसे देश का ही नहीं दुनिया का सबसे विश्वसनीय अखबार माना है। आज जब हम अखबारों की साख को लेकर परेशान हैं तब हिन्दू की इस किस्म की तारीफ विस्मय पैदा करती है।

पिछले साल समाचार फॉर मीडिया के लिए मुझे एक लेख लिखने का मौका मिला था। उसका संदर्भ पंजाब की एक गरीब लड़की का विश्वास था, जो हिन्दू की पाठक थी और जिसे पढ़कर वह आईएएस परीक्षा में सफल हुई थी। उस लेख का एक अंश मैं उद्धृत कर रहा हूँ-

"हिन्दू के बारे में दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिन्हें सब मानते हैं। एक खबरों का वज़न तय करने का उसका परम्परागत ढंग है। यह अखबार सनसनी में भरोसा नहीं करता। उसकी एक राजनैतिक लाइन है, जिसे हम नापसंद कर सकते हैं। पर खबरें लिखते वक्त वह पत्रकारीय मर्यादाओं का पालन करता है। रेप विक्टिम का नाम नहीं छापना है, तो हिन्दू उसका पालन करता है। उसकी डिज़ाइन बहुत आकर्षक न लगती हो, पर वह विषय को पाठक पर आरोपित भी नहीं करती। खेल, विज्ञान, विदेशी मामलों से लेकर लोकल खबरों तक उसकी खबरें ऑब्जेक्टिविटी की परिभाषा पर खरी उतरतीं हैं। उसकी फेयरनेस पर आँच आने के भी एकाध मौके आए हैं। खासतौर से बंगाल में सिंगूर की हिंसा के दौरान उसकी कवरेज में एक पक्ष नज़र आया। यह उसकी नीति है। और किसी अखबार को उसका हक होता है। उसकी इस नीति और विचारधारा की आलोचना की जा सकती है, पर उसके सम्पादकीय और ऑप-एडिट पेज की गुणवत्ता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं।..."


हिन्दू व्यावसायिक रूप से विफल अखबार भी नहीं है, फिर भी देश का शायद ही कोई मीडिया हाउस उसके रास्ते पर चलना चाहता हो। हिन्दू अपने आर्थिक पक्ष को बचाए रखने के तरीकों पर भी चलता है। वह भी पेज एक पर जैकेट छापता है। उसने पहले सफे पर विज्ञापन का अनुपात बढ़ाया है, पर जो स्वतंत्रता उसके सम्पादकीय विभाग के पास है, वह देश के किसी अखबार में नहीं है। मेरी मनोकामना है कि इस प्रवृत्ति को ताकत मिले।

नीचे पढ़ें खुशवंत सिंह का पत्र
I go over a dozen morning papers every day.
The only one I read from cover to cover including readers' letters is The Hindu 
I find its news coverage reliable, authentic and comprehensive. I cannot say that about any other daily, Indian or foreign. 

It is a pleasure going through its columns: they inform, teach and amuse. I even wrestle with its crossword puzzle every day. 

You, Mr. Editor, and your staff deserve praise for giving India the most readable daily in the world. Congratulations.
Khushwant Singh,New Delhi

Wednesday, October 12, 2011

सोनिया गांधी की बीमारी की कवरेज



पिछले शुक्रवार यानी 7 सितम्बर को करन थापर के शो लास्ट वर्ड में सोनिया गांधी की बीमारी पर भारत के मीडिया में हुई फीकी चर्चा पर चर्चा हुई। हालांकि विषय काफी पुराना हो गया, करन थापर इसके पहले भी चर्चा कर चुके थे, जिसे मैने नीचे लिंक 1 में दिया है। लिंक 2 में दी गई चर्चा ताज़ा है। बहरहाल इस मामले में विचार के कुछ बिन्दु हैं, जिन्हें पहले समझना चाहिए। उसके बाद मीडिया की प्रवृत्ति पर बात करनी चाहिए।

1.क्या किसी राजनेता की बीमारी जैसे व्यक्तिगत मामले को चर्चा का विषय बनाना उचित होगा? सोनिया जी किसी सरकारी पद पर भी नहीं हैं कि ऐसे विषय जनता के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में आएं। यदि वे पूरी तरह निजत्व के दायरे में हैं तब बात खत्म। पर 22 सितम्बर के हिन्दू में निरूपमा सुब्रह्मण्यम ने लिखा है कि राजनेताओं को निजता का अधिकार है, पर यदि उनका जीवन सार्वजनिक कार्यों पर असर रखता है तब वह सार्जनिक भी हो जाता है। श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की वरिष्ठ नेता हैं। पिछले साल अमेरिका के राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि अब से उनके मेडिकल चेकअप की जानकारी सार्वजनिक रूप से दी जाएगी। सितम्बर 2009 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के स्वास्थ्य को लेकर विवाद हुआ था। प्रधामंत्री मनमोहन सिंह और उसके पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेटी के स्वास्थ्य को लेकर भी चर्चा हो चुकी है। निरूपमा सुब्रह्मण्यम का लेख लिंक 3 में।

करन थापर के शो में कोई यह नहीं बता पाया कि भारत के मीडिया ने इस मामले को ठीक से कवर क्यों नहीं किया। एन राम भी नहीं बता पाए कि निरूपमा सुब्रह्मण्यम का लेख छापने वाले हिन्दू ने कवरेज क्यों नहीं की। सच यह है कि हमारा मीडिया अनेक अवलरों पर ब्लैंक हो जाता है। जैसे कि नीरा राडिया वाले मामले में अचानक समूचे मीडिया का काठ मार गया था। पहले इसकी चर्चा इंटरनेट पर हुई। उसके बाद कुछेक अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हिम्मत की। इससे लगता है कि हम बहुत सी बातों पर जानकर अनजान बनना चाहते हैं और इसे सहज और स्वाभाविक मानते हैं।

लिंक देखें

1.करन थापर के एक और शो में इसी विषय पर बातचीत

2.सोनिया गांधी की बीमारी की कवरेज को लेकर करन थापर के शो में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की बातचीत

3.हिन्दू में निरूपमा सुब्रह्मण्यम का लेख

संदेशवाहक क्यों?

यह ब्लॉग मीडिया से जुड़े मसलों पर केन्द्रित है। जिज्ञासा को अब मैं वैश्विक घटनाक्रम, राष्ट्रीय प्रश्न और सामान्य बातों पर केन्द्रित करूँगा।