हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।
इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।