Tuesday, April 24, 2012

अक्षय तृतीया पर हिन्दू का जैकेट


भारत के अखबारों के पास शानदार अतीत है और आज भी अनेक अखबार अपने पत्रकारीय कर्म का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें मैं हिन्दू को सबसे आगे रखता हूँ। पहले भी और आज भी। अखबार के सम्पादकीय दृष्टिकोण की बात छोड़ दें तो उसकी किसी बात से असहमति मुझे कभी नहीं हुई। हाल के वर्षों में बिन्दू व्यावसायिक दौड़ में भी शामिल हुआ है और बहुत से ऐसे काम कर रहा है, जो उसने दूसरे अखबारों की देखादेखी या व्यावसायिक दबाव में किए होंगे। पर ऐसा मैने नहीं देखा कि सम्पादक अपने अखबार की व्यावसायिक नीतियों और सम्पादकीय नीतियों के बरक्स अपनी राय पाठकों के सामने रखे। मीडिया ब्लॉग सैंस सैरिफ ने

अखबारों में जैकेट का चलन बढ़ता जा रहा है। एक शुरू करता है तो दूसरा चार जैकेट लगा देता है। बेशक इसमें पैसा मिलता है, पर शायद अब कोई सम्पादकीय विभाग अपने विज्ञापन विभाग से इस मामले पर दरियाफ्त करता हो। पर यह मसला जैकेट का नहीं, अखबार के विचार का है। इस सोमवार को हिन्दू के चेन्नई संस्करण में अक्षय तृतीया पर एक इन हाउस विज्ञापन जैकेट के रूप में छापा। इसका स्पष्टीकरण अखबार के सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन ने छापा है जो एक ओर पत्रकारिता की उस रेखा को स्पष्ट करता है, जिसका उल्लंघन लगातार हो रहा है। साथ ही अखबार की वैचारिक रेखा को व्यक्त करता है। बहरहाल उस संस्थान के भीतर क्या राय बनती है यह अलग बात है, पर इसे पारदर्शी तरीके से पाठक के सामने भी लाया जा सकता है यह बात महत्वपूर्ण है। इसे खुद पढ़ें। औरमीडिया ब्लॉग सैंस सैरिफ में यह रपट पढ़ें





इसके पहले 1 जनवरी 2012 के अंक में सोनिया गांधी की प्रशंसा में छपे जैकेट पर मिली प्रतिक्रियाओं के जवाब में सिद्धार्थ वरदराजन ने फेसबुक पर जो लिखा वह भी ध्यान देने लायक है।  पहले जैकेट को देखें उसके बाद नवागत सम्पादक की प्रतिक्रिया। इस विज्ञापन की सबसे जोरदार पंक्तियाँ हैं

 "We remain, Madamji, 
ever at your feet"




सिद्धार्थ वरदराजन ने तब अपने फेसबुक स्टेटस में लिखा था

“To all those who messaged me about the atrocious front page ad in The Hindu’s Delhi edition on Jan 1, my view as Editor is that this sort of crass commercialisation compromises the image and reputation of my newspaper. We are putting in place a policy to ensure the front page is not used for this sort of an ad again.”



हिन्दू के बारे में मेरी एक पुरानी पोस्ट पढ़ें

Monday, April 16, 2012

अखिलेश को सलाह



अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने की सुगबुगाहट के साथ ही उन्हें मीडिया ने सलाह देना शुरू कर दिया है। उन्हें फर्स्ट पोस्ट ने सलाह दी है कि राहुल द्रविड़ की तरह बैटिंग करना। महाभारत की तरह अखिलेश को पहला विरोध घर के भीतर से ही झेलना पड़ा है। आज इंडियन एक्सप्रेस के एसपी वर्सेज एसपी शीर्षक सम्पादकीय में अखिलेश को सलाह दी गई है कि कानून व्यवस्था को सुधारना होगा। सम्पादकीय में लिखा है कि  The emasculation of the superintendent of police was a defining feature of the last Mulayam government. In what has been described as its “goonda raj”, the independence and efficacy of the police administration was systematically chipped away to ensure political bosses held sway. For the aam aadmi, if he fell out of political favour, there was no recourse as the thana was virtually outsourced to ruling party toughies and strongmen. When Mayawati was voted to power in 2007, her mandate came riding not on the back of the innovative “social engineering” attributed to the BSP chief, but on the widely shared revulsion against a regime that



आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने Fathers, sons - and some others शीर्षक से जो टिप्पणी की है उसमें खानदान और परिवार को केन्द्र में रखा है। इस चुनाव में बादल परिवार, नेहरू परिवार और मुलायम परिवार मैदान में थे। सामान्य भारतीय इसे नापसंद करता है पर राजनीति में परिवार सफल हैं। टाइम्स के अनुसार  We Indians love our families - and our politics. Logically then, we can sometimes mix the two up - hence our enduring passion for family politics! From the pre-historic Mahabharata, where Kaurava and Pandava cousins dramatically broke bones over gaddis, to the here-and-now, when television soaps portray gleaming mums-in-laws pitched against glittering bahus. ..Take the Badal clan in Punjab. Although the family's main branch made history in recent polls, becoming the first incumbent government re-elected to power, they had to slug it out with disaffected relative Manpreet Singh Badal. Power revolving around his cousin and Badal heir, Sukhbir Singh, Manpreet left the Shiromani Akali Dal (SAD) in pouty sadness, starting his reformist PPP - which was so anti-populist in tone as to fall off the popularity charts itself....Voter attention was certainly captured by the Congress's first family campaigning busily in UP. Unfortunately, that attention didn't translate into votes. But we got an eyeful, with Rahul baba first paratrooping in, followed by sister Priyanka. Definitely no Behenji, Priyanka described herself as a barsaati mendak, a seasonal frog appearing occasionally. If my sister's a frog, so am i, declared Rahul with a straight face. What does that make Robert Vadra then?...There's just one political group not singing that number after these surprising elections - the Samajwadis, where son Akhilesh wrested victory for pitaji, sorry, netaji from the shadows of stone statues clutching power like handbags. Akhilesh rallied voters round with promises to deliver develop-ment over identity politics and instability. As the dust settles, let's see if what papa kehte hain about the lad is true - or if this turns out to be yet another family drama.

आज टेलीग्राफ में रामचन्द्र गुहा का विधानसभा चुनावों पर लेख प्रकाशित हुआ है। इसमें उन्होंने अखिलेश के लिए देहाती डायनैस्ट शब्द का प्रयोग किया है। इस लेख का हिन्दी अनुवाद हिन्दुस्तान में देखा जा सकता है। कतरन पर क्लिक करके उसे बड़ा कर लें।