Monday, October 24, 2011

कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?


प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण  गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीवी चैनल पर एक नया कार्यक्रम दिखाई पड़ा ‘सच का सामना।‘ किसी विदेशी कार्यक्रम की नकल पर बने कार्यक्रम का ध्यान देने वाला पहलू था तो उसकी टाइमिंग। कठोर सच सामने आ रहे हैं। उन्हें सुनने, विचार करने और अपने को सुधारने के बाद ही कोई समाज या संस्था आगे बढ़ सकती है। ऐसा पहली बार हुआ जब बड़े लोग जेल जाने लगे और घोटालों की झड़ी लग गई। और इन मामलों की चर्चा से समूचा मीडिया रंग गया। प्रौढ़ होते समाज के बदलाव का रास्ता विचार-विमर्श और सूचना माध्यमों से होकर गुजरता है। पिछले एक दशक में पत्रकारिता शब्द पर मीडिया शब्द हावी हो गया। दोनों शब्दों में कोई टकराव नहीं, पर मीडिया शब्द व्यापक है। सूचना-संचार कर्म के पत्रकारीय, व्यावसायिक और तकनीकी पक्ष को एक साथ रख दें तो वह मीडिया बन जाता है। इसी कर्म के सूचना-विचार पहलुओं की सार्वजनिक हितकारी और जनोन्मुख अवधारणा है पत्रकारिता। वह अपने साथ कुछ नैतिक दायित्व लेकर चलती है। पर मीडिया कारोबार भी है। वह पहले भी कारोबार था, पर हाल के वर्षों में वह यह साबित करने पर उतारू है कि वह कारोबार ही है। कारोबार के भी अपने मूल्य होते हैं। इस कारोबार के भी थे। वे भी क्रमशः कमज़ोर होते जा रहे हैं।

मीडिया हार्डवेयर है, पत्रकारिता उसका सॉफ्टवेयर है। पर सॉफ्टवेयर बनाने वाले वायरस भी बनाते हैं। यह बात वैश्विक पत्रकारिता के 400 साल के इतिहास में कई बार साबित हुई है। सार्वजनिक-हितैषी होना इसे ऊँचे धरातल पर रखता है। इसका कारोबारी मॉडल अंतर्विरोध पैदा करता है। इसी वजह से 400 वर्षों में इस काम से जुड़ी संस्थाओं ने अपने भीतर एक दीवार खड़ी की। यह दीवार चीन की ग्रेट वॉल जैसी नज़र आने वाली नहीं है या थी, पर वह थी। पिछले एक-डेढ़ दशक में यह दीवार कब गिर गई, किसी ने ध्यान नहीं दिया। जब पिछले साल टूजी के साथ नीरा राडिया के टेपों का मामला उठा तब कुछ टेप मीडिया-हाउसों तक पहुँचे। मुख्यधारा के लगभग समूचे मीडिया ने इन खबरों को न छापा, प्रसारित किया और न कोई टिप्पणी की। और जैसा कि होता है दो पत्रिकाओं ने इन्हें प्रकाशित किया और बाकी काम इंटरनेट ने कर दिया। इसके बाद भी यह विषय मुख्यधारा के मीडिया में हौले से उठकर बगैर चर्चा के खत्म हो गया।

पिछले हफ्ते चुनाव आयोग ने पेड न्यूज़ को लेकर उत्तर प्रदेश की एक विधायक की सदस्यता खत्म की तो यह खबर कुछ अखबारों में ही छप पाई। उसपर विश्लेषण छापने की कोशिश भी नहीं की। सारी दुनिया पर टिप्पणी करने वाले मीडिया के पास अपने मामलों पर विचार करने का वक्त क्यों नहीं है? अखबारों के सम्पादकीय और ‘आत्म-प्रशंसा परक विज्ञापन’ देखें तो लगता है कि मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत एक जन-पक्षधर व्यवस्था काम कर रही है। व्यावहारिक सच कुछ फर्क है। पेड न्यूज़ फैसले के अलावा हाल में भारतीय प्रेस परिषद ने मुख्य सतर्कता आयुक्त के निर्देश पर अपनी वह रपट वैबसाइट पर डाल दी, जिसका संशोधित रूप ही पहले जारी किया गया था। समझदार पत्रकारिता का तकाज़ा है कि वह इस कर्म के सामने खड़े सवालों पर विचार-विमर्श करे।

प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने हाल में मीडियाकर्मियों के साथ बातचीत में संकेत किया कि मीडिया की गैर-ज़िम्मेदाराना प्रवृत्तियों को लेकर कड़े कदम उठाने पर भी विचार होना चाहिए। एक चर्चा यह भी है कि लोकपाल कानून के दायरे में मीडिया-सम्बद्ध मसलों को शामिल करना चाहिए या नहीं। ए राजा से लेकर कर्नल गद्दाफी तक पर पन्ने रंगने वाले अखबारों के सम्पादकीय पेजों पर यह चर्चा भी शामिल होनी चाहिए। जस्टिस काटजू ने मीडिया के कुछ मुख्य दोषों को गिनाया। उनमें से एक है कि मीडिया तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है। दूसरा है कि वह उन मसलों को बड़ा बना देता है जो मसले नहीं है और जो मसले हैं उन्हें भूल जाता है। मसलन किसी अभिनेत्री के गर्भवती होने को वह बड़ी खबर मानता है और आत्महत्या करने वाले किसानों की खबर एकाध बार छाप कर इतिश्री कर लेता है। उन्होंने उदाहरण दिया कि लैक्मे फैशन शो के लिए 512 पत्रकारों ने एक्रिडिटेशन कराया। इससे मीडिया की दिलचस्पी का पता लगता है। मीडिया ब्रैंडिंग करता है। सारे मुसलमानों को आतंकवादी जैसा बनाकर पेश करने में मीडिया का हाथ है।

ऐसा नहीं कि मीडिया के लोग इन बातों को नहीं समझते। ये सामान्य दोष हैं, जिनसे प्रायः सभी मीडियाकर्मी परिचित हैं। पर इन बातों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या पत्रकार दोषी हैं? या वह पाठक या दर्शक जो मनोरंजन की चाशनी में डूबे रहना चाहता है? या मीडिया हाउसों के मार्केटिंग विभाग, जिनके दिमाग पर एक कृत्रिम करोबार की कल्पना है, जो दुनिया में कहीं नहीं है? कम से कम पश्चिमी समाज में नहीं है, जिसकी नकल वे करते हैं। या वे विज्ञापनदाता जो ऐसे उत्पादों को लोकप्रिय बनाना चाहते हैं, जिनकी हमारे समाज को ज़रूरत नहीं थी? हाल में हिन्दी अखबारों में जबरन अंग्रेजी शब्द घुसेड़ने की कोशिश के पीछे मेरी जानकारी में सिर्फ कुछ विज्ञापनदाताओं का हाथ है। वे अधकचरी संस्कृति से लैस लोगों की पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं। इस पीढ़ी को वे अपने परिधान, कॉज़्मेटिक्स, मोबाइल फोन, गैजेट्स वगैरह बेचना चाहते हैं। उस भाषा की माँग हिन्दी पाठकों ने की होगी, इसका मुझे यकीन नहीं है।

सम्पादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड इस बात के पक्ष में नहीं है कि जल्दबाज़ी में मीडिया पर बंदिशों का शिकंजा कस दिया जाए। मीडिया के नकारात्मक पहलुओं के साथ सकारात्मक पहलुओं की कमी नहीं है। मीडिया को स्वतंत्र, निर्भीक, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। पर यह कौन देखेगा कि मीडिया के भीतर इन मूल्यों की रक्षा करने को उत्सुक शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ कौन सी हैं? उन्हें कौन प्रणवायु दे रहा है और कौन उनके प्राण ले रहा है? भारतीय संवैधानिक और न्याय-व्यवस्था को ध्यान से पढ़ें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जनता का अधिकार है। पर वह जब प्रेस की स्वतंत्रता बनता है तो जनता की नहीं मीडिया के मालिक की स्वतंत्रता होता है। सिद्धांततः यही सही है। अखबार निकालने वाले को स्वतंत्र होना चाहिए। पर व्यावहारिक रूप से उसके जनोन्मुखी होने में यही पेच है। अखबार कारोबार है। उसे पूँजी चाहिए। पर क्या पूँजी की साख से दुश्मनी है? उसका पाठक चाहे तो दो रोज़ में कहानी बदल सकती है। वह क्यों नहीं चाहता? इस पर विचार करना चाहिए।

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

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